इस्लाम के दुश्मन अच्छी तरह से जानते है कि समाज को सुधारने में और धर्म की सेवा में मुस्लिम महिला का महान किरदार है। इसलिए वे मुस्लिम महिलाओं और उनके अखलाक़ और किरदार को तबाह करने की कोशिश में लगे हैं। क्योंकि जब एक पुरूष ख़राब हो जाए तो उसका असर खुद उसी तक सीमित रहता है। लेकिन यदि एक स्त्री ख़राब हो जाएगी तो पूरा परिवार ख़राब हो जाता है। और इस युद्ध के सबसे महत्वपूर्ण विषयों में यह शामिल है कि मुस्लिम महिलाओं को यह विश्वास दिलाकर कि इस्लामी क़ानून उनकी स्थिति को घटाता और उनका अपमान करता है और उनके अधिकार में ज़ुल्म से काम लेता है। उन्हें यह विश्वास दिलाकर इस्लामी क़ानून से दूर कर दिया जाए और उनके दिलों में इस्लाम के प्रति नफरत बैठा दी जाए। और इस नापाक इरादे व मकसद को पूरा करने के लिए जो झूठी अफवाहें फैला रहे हैं उन्ही में से एक यह भी है कि इस्लाम ने मीरास के अधिकार में पुरुष को महिला से ऊपर रखा है, वह इस तरह से कि इस्लाम मीरास़ (उत्तराधिकार) में महिला को हमेशा पुरूष की तुलना में आधा हिस्सा देता है। वास्तव में यह इस्लाम पर एक झूठा आरोप है। सच तो यह है कि इस्लाम के सारे व्यवहार न्याय के नियम पर आधारित हैं। और वह नियम यह है कि "इस्लाम सदा समानता एक जैसी चीज़ों में बराबरी करता है और असमानता और अलग अलग चीज़ों में अंतर करता है।" और यही न्याय का सही तराज़ू है जिसकी मानव को ज़रूरत है, ताकि उसे सुकून प्राप्त हो सके और उसका जीवन अच्छा हो।

विरासत के क्षेत्र में इस्लाम ने वारिस के प्रकार और स्त्री-पुरूष भेद को बुनियाद नहीं बनाया है। हाँ इस्लाम ने इस मामले में तीन विषयों को ध्यान में रखा और उन्हीं की बुनियाद पर विरासत को बांटा है।

पहला विषय: मृतक और वारिस (पुरूष हो या महिला) के बीच खूनी संबंध की नज़दीकी या दूरी कितनी है। यानी वारिस के लिंग (पुरूष या महिला) से हट कर इस्लाम ने यह ध्यान में रखा कि मृतक और वारिस के बीच संबंध जितना नज़दीक का होगा विरासत में भाग भी उतना ही ज़्यादा होगा और यह संबंध जितना दूर होगा विरासत में भाग भी उसी हिसाब से कम होगा। अतः विरासत (उत्तराधिकार) में वारिसों (उत्तराधिकारियों) के बीच स्त्री-पुरूष भेद को महत्व नहीं दिया गया है। इसीलिए मृतक की बेटी मृतक के पिता और उसकी माँ की तुलना में उसकी विरासत में अधिक भाग पाती है।

दूसरा विषय: वारिस के जीवन का दर्जा। अतः वह पीढ़ियाँ जो अभी जिंदगी शुरू कर रही हैं और जीवन की ज़िम्मेदारियों के बोझ उठाने की तैयारी में हैं उनका भाग ज़्यादातर उन पीढ़ियों की तुलना में अधिक होता है जो जीवन गुज़ार कर इस दुनिया से चल-बसने की तैयारी कर रही है और जिनकी पीठ पर से ज़िम्मेदारियों का बोझ हल्का होने लगा है या जिनकी ज़िम्मेदारियां दूसरों के सरों पर पड़ चुकी हैं। इस विषय में भी वारिसों (उत्तराधिकारियों) के लिंग यानी उनकी मर्दानगी और स्त्रीत्व के फ़र्क़ को बिल्कल नहीं देखा गया। इसीलिए मृतक की बेटी मृतक की माँ की तुलना में उसकी विरासत में अधिक भाग पाती है हालांकि दोनों ही स्त्री हैं। इसी तरह मृतक की बेटी मृतक के बाप की तुलना में अधिक हिस्सा पाएगी भले ही लड़की अभी इतनी छोटी हो कि दूध पीती है और अपने बाप को भी पहचानने की आयु को न पहुंची हो यहाँ तक कि अगर मृतक के धनदौलत बनाने में उसके बाप की सहायता भी शामिल रही हो तब भी मृतक के बाप को मृतक की बेटी की तुलना में कम भाग ही मिलेगा। केवल यही नहीं बल्कि उस समय बेटी अकेले आधा धन लेगी। इसी तरह बेटा भी अपने पिता की तुलना में अधिक हिस्सा पाता है जबकि दोनों ही पुरूष हैं।

तीसरा विषय: वे माली ज़िम्मेदारियाँ जो दूसरों के लिए वारिस पर इस्लामी क़ानून की ओर से रखी गई हैं। यही एक स्तिथि है जिसमें पुरूष और महिला के बीच विरासत में अंतर किया गया है लेकिन यह भी स्त्री-पुरूष भेद पर आधारित नहीं है बल्कि माली ज़िम्मेदारियों के बोझ के अनुसार हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस अंतर के कारण महिलाओं पर किसी तरह का ज़ुल्म हुआ हो या उनके अधिकार में कमी आई हो बल्कि वे फायदे में ही रहती हैं। अतः अगर सभी वारिस रिश्तेदारी में बराबर हैं, और वे जीवन के दर्जे या पीढ़ी में भी सामान व बराबर हैं, जैसे: भाई और बहनें, ऐसी स्तिथि में इस्लामी क़ानून माली ज़िम्मेदारियों के बोझ को हिसाब में रखते हुए मीरास बांटता है जिसके कारण हिस्सों में अंतर हो जाता है लेकिन यह अंतर लिंग (पुरुष या महिला होने) के आधार पर नहीं होता है बल्कि माली ज़िम्मेदारी के आधार पर होता है। और विशेष रूप से इस स्थिति में बेटे और बेटी के हिस्सों में अंतर की हिकमत यह है कि भाई के ऊपर उसकी बीवी बच्चों की ज़िम्मेदारी होती है जबकि उसकी बहन (अगर शादी शुदा है) तो उसकी और उसके बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी उसके अपने पति के ऊपर होती है। (और अगर शादी शुदा नहीं है तो कभी कभी उसकी ज़िम्मेदारी उसके उसी भाई के ऊपर होती है) इस तरह से वह -अपने भाई की तुलना में आधा पाने के बावजूद भी- अपने भाई से ज़्यादा फायदे में रहती है। क्योंकि उसके हिस्से का सभी धन सुरक्षित रहता है। जिससे वह अपने जीवन के कठोर समय में फायदा उठा सकती है। यही वजह है कि क़ुरआन ने पुरुष और महिला के हिस्सों में अंतर को सामान्य रूप से बयान नहीं किया बल्कि उसे केवल ऊपर उल्लेख की गयी स्थिति के साथ ही खास किया है। अतः आयत में बयान किया गया है कि:

अल्लाह तुम्हें तुम्हारे बच्चों के बारे में यह आदेश देता है कि (एक) बेटे का हिस्सा दो बेटियों के बराबर है।

(सूरह: अन-निसा: 11)

यहाँ जो इस्लामी क़ानून ने फ़र्क़ किया है वह सामानों (एक जैसों) के बीच नहीं किया है बल्कि आसमानों (अलग अलग) के बीच किया है। और असमानों के बीच फर्क़ करना तो ज़रूरी है।

तथा इस्लामी क़ानून पुरूषों को शादी के समय पत्नी को महर देने का पाबंद किया है हालांकि महिलाओं को पुरूषों के लिए किसी चीज़ के भी देने का पाबंद नहीं किया है।

साथ ही पुरूषों को ही वैवाहिक घर का बंदोबस्त करना है और उसके साज़ोसामान लाना है। और फिर महिलाओं और उनके बच्चों पर ख़र्च करना भी पुरूषों की ही ज़िम्मेदारी है। इसी तरह जुर्मानों को भरने का काम भी पुरूषों का है। जैसे किसी की हत्या करने के कांड में या इस तरह के दूसरे कांडों में यहाँ तक कि तलाक़ की घटना में भी इस्लामी क़ानून महिलाओं को अकेले जीवन के बोझ का सामना करने के लिए नहीं छोड़ता है बल्कि पुरूष को पाबंद किया है कि उसे कुछ दिन गुज़र-बसर करने का ख़र्च दे जब तक महिला की दूसरी शादी न हो जाए। रिश्तेदारी और जीवन के दर्जे में बराबर होने की स्तिथि में इन्हीं ज़िम्मेदारियों और माली बोझों के कारण इस्लाम ने पुरूष को स्त्री की तुलना में दुगना हिस्सा दिया है और साथ ही उसे स्त्री पर ख़र्च करने और उसकी देखरेख का पाबंद भी किया है।

इस से पता चला कि इस्लामी क़ानून ने मीरास में महिलाओं को एक विशेष स्थान और ख़ास महत्व व दर्जा दिया है।

और यह विषय (माली ज़िम्मेदारियाँ बोझ के अनुसार पुरूष को स्त्री की तुलना में दुगना हिस्सा दिया जाना) केवल चार स्थितियों तक ही सीमित है:

(1) मृतक के दोनों प्रकार (स्त्री-पुरूष) बच्चों के रहने की स्तिथि में जैसा कि पवित्र क़ुरआन में आदेश है:

अल्लाह तुम्हारी संतान (औलाद) में तुम्हें आदेश देता है कि दो बेटियों के बराबर एक बेटे का हिस्सा होगा।

(सूरह: अल-निसा, आयत संख्या: 11)

(2) विरासत में पति या पत्नी होने की स्तिथि में, यदि पत्नी मृतक है तो पति को पत्नी के धन से उसका दुगना भाग मिलेगा जितना कि पति मृतक होने की स्तिथि में एक पत्नी को मिलता है।

अल्लाह तआ़ला क़ुरआन ए पाक में फरमाता है:

और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो, उसमें तुम्हारा आधा है अगर उनकी औलाद न हो। लेकिन अगर उनकी औलाद हो तो वे जो छोड़ें उसमें तुम्हारा चौथाई होगा इसके बाद कि जो वसियत वे कर जाएँ वह पूरी कर दी जाए या जो क़र्ज़ (उनपर) हो वह चुका दिया जाए। और जो कुछ तुम छोड़ जाओ, उसमें उनका (पत्नियों का) चौथाई हिस्सा होगा अगर तुम्हारी कोई औलाद न हो तो। लेकिन अगर तुम्हारी औलाद हो, तो जो कुछ तुम छोड़ोगे, उसमें से उनका (पत्नियों का) आठवाँ हिस्सा होगा, इसके बाद कि जो वसियत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए या जो क़र्ज़ हो उसे चुका दिया जाए।

(सूरह: अल-निसा, आयत संख्या: 12)

(3) अगर मरने वाला बेटा हो तो उसका पिता उसकी माँ के हिस्से की तुलना में दुगना लेगा अगर उस मृतक बेटे की औलाद न हो तो। लिहाज़ा इस स्तिथि में बाप को दो तिहाई मिलेगा और माँ को एक तिहाई।

(4) अगर मृतक बेटे की एक बेटी हो तो भी उस मृतक का पिता अपनी पत्नी (मृतक की माँ) के हिस्से की तुलना में दुगना लेगा। क्योंकि इस स्तिथि में बेटी को उसके धन का आधा हिस्सा मिलेगा और मृतक की माँ को छठा हिस्सा मिलेगा और बाप को छठे हिस्से के साथ सब बांटने के बाद का बचा हुआ भी मिलेगा।

जबकि इसके विपरीत (मुक़ाबले) में इस्लाम ने कई स्तिथियों में महिलाओं को पुरूषों के बरारबर भाग दिया है:

(1) कलाला की स्थिति में यानी न तो मय्यित की अस्ल (बाप-दादा) में से कोई हो और न ही उसकी औलाद (बेटा बेटी व पोता पोती) में से कोई हो। लेकिन माँ की ओर से सौतेले भाई और बहन हों तो भाई-बहन में से हर एक को भाई की विरासत में से छठा हिस्सा मिलेगा। जैसा कि क़ुरआन में इसका आदेश है:

और अगर किसी पुरूष या स्त्री के कोई औलाद न हो और न उसके माँ-बाप ही जीवित हों। लेकिन माँ की तरफ से उसका एक भाई या बहन हो तो उन दोनों में से हर एक के लिए छठा हिस्सा होगा। लेकिन अगर वे इससे अधिक हों तो फिर एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे। इसके बाद कि जो वसियत उसने की वह पूरी कर दी जाए या जो क़र्ज़ (उसपर) हो वह चुका दिया जाए जिसमें उसने नुक़सान न पहुंचाया हो। यह अल्लाह का आदेश है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त सहनशील है।

(सूरह: अल-निसा, आयत संख्या: 12)

(2) जब उस मरने वाले के दो से ज़ियादा माँ की तरफ से भाई और बहनें हों तो वे सब एक तिहाई को आपस में बराबर बराबर बाटेंगे।

 (3) इसी तरह माँ और बाप अपने बेटे की विरासत में बराबर बराबर लेंगे अगर मृतक ने एक बेटा या दो या दो से अधिक बेटियाँ छोड़ीं। जैसा कि अल्लाह तआ़ला ने फरमाया:

और अगर मरनेवाले की औलाद हो, तो उसके माँ-बाप में से हर का उसके छोड़े हुए माल का छठा हिस्सा है।

(सूरह: अल-निसा, आयत संख्या: 11)

(4) जब मय्यित महिला हो और वह पति और एक सगी बहन छोड़ जाए तो दोनों को आधा आधा हिस्सा मिलेगा।

(5) जब मय्यित महिला हो और वह पति और एक पिता की तरफ से बहन छोड़ जाए तो दोनों को आधा आधा हिस्सा मिलेगा।

(6) जब एक औरत की मृत्यु हो गई और उसने पति, माँ और एक अपनी सगी बहन छोड़ा, तो आधा पति को, और आधा माँ को मिलेगा। और हज़रत इब्न अब्बास के यहाँ बहन को कुछ मिलेगा।

(7) जब एक औरत की मृत्यु हो गई और वह पति, एक सगी बहन, एक बाप शरीक बहन और एक माँ शरीक बहन छोड़े तो आधा पति को मिलेगा और आधा उसकी सगी बहन को और बाप शरीक बहन और माँ शरीक बहन को कुछ नहीं मिलेगा।

(8) जब एक आदमी की मृत्यु हो गई और वह दो बेटियाँ और माता पिता को छोड़ जाए। तो बाप को छठा हिस्सा मिलेगा और माँ को भी छठा हिस्सा मिलेगा और हर एक बेटी के लिए एक तिहाई है।

इसी तरह कई स्थितियों में इस्लाम ने स्त्रियों को पुरूषों की तुलना में अधिक हिस्सा दिया:

(1) जब एक आदमी मर गया और उसने माँ, दो बेटियाँ और एक भाई छोड़ा है। तो इस स्तिथि में बेटी को भाई की तुलना में डेढ़ गुना अधिक हिस्सा मिलेगा।

(2) जब आदमी की मृत्यु हो गई और मृतक ने एक बेटी और माँ-पिता को छोड़ा तो भी बेटी को मृतक के पिता की तुलना में डेढ़ गुना अधिक हिस्सा मिलेगा।

(3) जब कोई आदमी मर गया और उसने दो बेटियाँ, बाप और माँ को छोड़ा तो बेटी को बाप का दुगना हिस्सा मिलेगा।

(4) और यही हुक्म उस स्थिति में भी होगा जब किसी महिला की मृत्यु हो गई और वह पति, माँ, दादा दो माँ शरीक भाई और दो बाप शरीक भाई छोड़ जाए।

(5) जब कोई आदमी मर जाए और वह दो बेटियाँ, एक बाप-शरीक भाई और एक बाप-शरीक बहन को छोड़ गया तो दोनों बेटियों में से हर एक को एक तिहाई मिलेगा। और बाक़ी एक तिहाई में से दो तिहाई भाइयों को मिलेगा और एक तिहाई उसकी बहन को मिलेगा।

तथा कुछ स्थितियां ऐसी भी हैं जिनमें में महिलाओं को तो हिस्सा मिलता है लेकिन पुरूषों को कुछ नहीं मिलता है।

(1) जब एक आदमी की मृत्यु हो जाए और एक बेटी, एक बहन और एक चचा छोड़ जाए। तो बेटी को आधा और बहन को आधा मिलेगा और चाचा को कुछ नहीं मिलेगा।

(2) जब एक महिला की मृत्यु हो जाए और पति, एक सगी बहन, एक बाप-शरीक बहन और एक बाप-शरीक भाई छोड़े तो पति को आधा मिलेगा और सगी बहन को आधा मिलेगा। और बाप-शरीक बहन और भाई को कुछ नहीं मिलेगा।

(3) जब किसी महिला की मौत हो जाए और वह पति, पिता, माँ, बेटी, और एक पोता और एक पोती छोड़ जाए तो पति को एक चौथाई मिलेगा और माता पिता में से हर एक को एक छठा हिस्सा मिलेगा और बेटी को आधा मिलेगा। जबकि पोता और पोती को कुछ नहीं मिलेगा। याद रहे कि यहाँ बेटी को पोते की तुलना में छे गुना अधिक हिस्सा मिला।

(4) जब एक महिला की मृत्यु हो जाए और पति, माँ, दो माँ-शरीक भाई, और एक या एक से अधिक सगे भाई छोड़ जाए तो पति को आधा है और माँ को एक छठा हिस्सा मिलेगा। और माँ-शरीक भईयों को एक तिहाई मिलेगा। और हज़रत उ़मर-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-के ख़्याल के अनुसार सगे भाईयों को कुछ नहीं मिलेगा।

(5) जब किसी महिला की मृत्यु हो जाए और वह पति, दादा, माँ, सगे भाई और माँ-शरीक भाईयों को छोड़ जाए तो पति को आधा है और दादा को एक छठा और माँ को भी एक छठा हिस्सा मिलेगा। और बाक़ी सगे भाइयों को दे दिया जाएगा। और माँ-शरीक भाईयों को कुछ नहीं मिलेगा।

इससे साफतौर पर यह पता चलता है कि कि इस्लामी विरासत के विज्ञान को पढ़नेवाला व्यक्ति अच्छी तरह से यह जान लेगा कि इस्लामी विरासत में केवल चार स्थितियां ऐसी हैं जिनमें महिला का हिस्सा पुरुष के हिस्से की तुलना में आधा है जबकि इसके मुक़ाबले में तीस अधिक स्तिथि ऐसी हैं जिन में स्त्री पुरूष के बराबर या उससे बढ़कर हिस्सा लेती है, या फिर स्त्री तो हिस्सा पाती है लेकिन पुरूष को कुछ नहीं मिलता है।

दूसरी शरिअ़तों में महिला की मीरास पर एक नजर

आइए यह भी जान लेते हैं कि दूसरी शरिअ़तों ने मीरास में महिला को क्या अधिकार दिया है।

बाइबिल में मीरास केवल पुरुषों के लिए हैं जैसा कि उसमें है:

"कि अगर किसी पुरुष की दो पत्नियाँ हो उनमें से एक उसको प्यारी हो और दूसरी नापसंद हो। और उन दोनों से बेटे पैदा हुए हों तो अगर पहला बेटा (यानी सबसे बड़ा बेटा) ना पसंदीदा पत्नी से है तो कोई भी चीज बांटते समय पति के लिए यह जायज़ नहीं कि वह पसंदीदा पत्नी के बड़े बेटे को ना पसंदीदा पत्नी के बड़े बेटे से ऊपर रखे। बल्कि वह उसी नापसंदीदा पत्नी के बड़े बेटे को आगे रखे ताकि उसे दुगना हिस्सा दे क्योंकि यह उसकी पहली निशानी है और उसे पहला होने का अधिकार हासिल है।

(तस़निया: 21, 15,17)

बेटियों को विरासत नहीं मिलती लेकिन केवल उसी समय जबकि बेटे ना हों।: "सुलह़फ़ाद की बेटियाँ आगे बढ़ी और ह़ज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम के सामने खड़ी हुईं और कहने लगीं: जंगल में हमारे पिता की मृत्यु हो गई और उनका कोई बेटा नहीं है तो केवल बेटा ना होने के कारण क्यों उनका नाम कबीले से मिटा दिया गया? हमारे चचाओं के सामने हमारे बाप की दौलत दो तो ह़ज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम ने उनके दावे को अपने रब अल्लाह के सामने रखा तो अल्लाह ताआ़ला ने उनसे इरशाद फरमाया: सुलह़फ़ाद की बेटियाँ सच बोल रही हैं। उनके चाचाओं के सामने उन्हें उनके हिस्से की दौलत दे दो ताकि वे अपने पिता के हिस्से पर क़ब्ज़ा करलें। और बनी इसराइल की क़ौम से फरमादो अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए और उसका कोई बेटा ना हो तो उसकी दौलत उसकी बेटी को दे दो। अगर बेटी ना हो तो भाइयों को दे दो। अगर भाई ना हो तो उसके चाचाओं को दे दो। और अगर मरने वाले के बाप के भाई (यानी मय्यित के चाचा) भी ना हों तो उसके कबीले में जो नसब के एतबार से उसके सबसे ज्यादा नज़दीक हो उसे ही उसका हिस्सा दे दो। लिहाजा वही उसका वारिस बनेगा। तो अल्लाह ताआ़ला ने यह जो ह़ज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम को आदेश दिया था यही बनी इस्राईल की क़ौम के लिए मीरास बांटने का नियम बन गया।

फ्रांसीसी कानून के आर्टिकल 270 ने इस बात को स्पष्ट किया है कि शादीशुदा औरत (अगरचे उसकी शादी इस शर्त के साथ हुई थी उसकी और उसके शौहर की दौलत जुदा-जुदा और अलग-अलग रहेगी) के लिए जायज नहीं कि वह अपना धन किसी को दे दे या अपनी दौलत को कहीं दूसरी जगह ले जाए या फिर किसी के पास गिरवी रख दे। और ना ही वह कोई चीज बदले में लेकर या बिना बदले के उसका किसी को मालिक बना सकती है जब तक कि इन सभी सौदों में पति की हिस्सेदारी न हो या लिखित रूप से उसकी इजाज़त न मिल जाए।

अंग्रेजी कानून के तहत पति अपनी पत्नी को 6 पैसों में दूसरे पुरुष को बेचता था और यह कानून 1805 ईसवी तक रहा जबकि फ्रांसीसी विरोध के कानून ने औरत को बच्चे और पागल की तरह कम बुद्धि वाला मानते हुए उसे उसकी दौलत व संपत्ति का इस्तेमाल करने से रोक दिया था जब तक कि उसका कोई वली (उसके घर का कोई ज़िम्मेदार पुरुष) न हो। यह कानून 1938 ईस्वी तक रहा।

और जब भी किसी ने औरत पर होने वाले अत्याचार को बदलना चाहा तो उसे ओर भी ज़्यादा अत्याचार में डाल दिया।  यहाँ तक कि उसकी स्त्रीत्व (महिला पन), ज़ात और पहचान को भी मिटा दिया। जिम्मेदारियों के बोझ में पुरुष के बराबर कर दिया। और उस पर अत्याचार के पहाड़ तोड़ कर और उसे बे जान व वे आत्म का जिस्म व मूर्ति बना दिया। लिहाज़ा जब तक औरत इस्लाम से दूर रहेगी उसकी तकलीफ और परेशानी और मेहरूमी बढ़ती जाएगी। क्योंकि केवल इस्लाम ही उससे सम्मान, इज़्ज़त, एहतराम, संतुष्टि और सुकून देने और उसे उसकी फितरत के हिसाब से रखने की क्षमता व ताक़त रखता है। क्योंकि वही केवल एक तन्हा अल्लाह का धर्म है।