ह़ज़रत अनस रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "अपने भाई की मदद करो वह ज़ालिम या मज़लूम।" सह़ाबा ने पूछा: ए अल्लाह के रसूल! हम मजलूम की तो मदद कर सकते हैं लेकिन जालिम की मदद किस तरह करें? आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: "(ज़ुल्म से) उसके हाथों को पकड़ लो। (यानी उसे ज़ुल्म से मना करो तो यही उसकी मदद है)।"
इस वसियत में ज़ालिम और मज़लूम के दरमियान न्याय और इंसाफ के दो नियम बयान किए गए हैं:
पहला: ज़ुल्म व अत्याचार को रोकना।
दूसरा: ज़ुल्म व अत्याचार का जवाब देना।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के फरमान "अपने भाई की मदद करो वो ज़ालिम हो या मज़लूम। "में दूसरे का माना तो जाहिर है लेकिन पहले का माना जाहिर नहीं है इसी वजह से सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु ने आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से पूछा कि ज़ालिम की मदद करने का क्या तरीका है? तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उन्हें इस तरह से जवाब दिया कि जिससे उनका संदेह दूर हो गया। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "(ज़ुल्म से) उस (ज़ालिम) के हाथों को पकड़ लो।" यानी जिन हाथों के जरिए वह मज़लूम को मार रहा है और उस पर ज़ुल्म कर रहा है उन पर अपने हाथों को रख दो। मतलब यह है कि उसे ज़ुल्म करने से रोक दो। तो इसी में ज़ालिम की मदद है। क्योंकि ज़ालिम को गुस्से में यह नहीं मालूम होता है कि वह क्या कर बैठेगा। तो जो उसे रोकने की ताकत रखता हो उसे चाहिए कि जहाँ तक हो सके उसे ज़ुल्म करने से रोके और इसमें कोताही से काम ले वरना तो वह भी ज़ुल्म करने में ज़ालिम का साथी माना जाएगा।
ऊपर बयान की हुई चीज़ों के अलावा इस वसियत से दो चीजें और ली जाती हैं।
पहली चीज तो यह है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का फरमान "अपने भाई की मदद करो वो ज़ालिम हो या मज़लूम।" से यह पता चलता है कि ताकत होने पर यह काम ज़रूरी (अनिवार्य) है। यानी इसमें उन लोगों को संबोधित किया गया है जो मदद करने की ताकत रखते हों ना कि उनको जो उसकी ताकत ना रखते हों। इसका उदाहरण ऐसे ही है जैसे के भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना कि यह भी उसी व्यक्ति पर अनिवार्य यानी जरूरी होता है जो ज़वान या हाथ के जरिए इसकी ताकत रखता हो कि जिस का बयान पिछली वसियत में गुजर चुका है।
और जो नसीहत के जरिए भी ज़ालिम या मज़लूम की मदद करने की ताकत नहीं रखता हो तो वह अपने दिल ही में उस ज़ुल्म को बुरा समझे और ज़ालिम के लिए हिदायत और रहनुमाई और मज़लूम के लिए मदद की दुआ करे। तो इस तरह से उसकी जिम्मेदारी अदा हो जाएगी। क्योंकि ताकत के मुताबिक ही आज्ञा के पालन करने का आदेश है। क्योंकि गैर मुमकिन चीज का जिम्मेदार बनाना सही नहीं है।
दूसरी चीज यह है कि ज़ालिम और मज़लूम के दरमियान बराबरी से काम ले। यानी उनके दरमियान न्याय और इंसाफ से काम ले। इस तौर पर कि बिना किसी एक तरफ झुके हुए हर एक को उसकी शैतानी ख्वाहिश से बचाए और वह उनके दरमियान एक जज की तरह रहे। ज़ालिम से कहे:" तुम ज़ुल्म कर रहे हो। या फुलाने व्यक्ति पर ज़ुल्म मत करो। क्योंकि वह तुम्हारा बुरा नहीं चाहता है बल्कि तुम्हारा भला चाहता है।" या इस तरह के दूसरे कोमल शब्दों का प्रयोग करे जिनसे उसका गुस्सा खत्म हो जाए और वह अपने होश की तरफ लौट आए। और हिकमत और नसीहत के जरिए ज़ुल्म के अंजाम से उसे डराए।
बेशक ज़ालिम और मज़लूम की मदद करना नेकी और भलाई पर मदद करने मैं से है। तो हर मुसलमान को चाहिए कि वह हमेशा अपनी ताकत के मुताबिक अपने मुसलमान भाई की मदद करे। क्योंकि अल्लाह उस समय तक उस अपने बंदे की मदद में रहता है जब तक कि वह अपने भाई की मदद में रहता है।