ह़ज़रत अबू हुरैरा कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "अल्लाह की पनाह (शरण) मांगा करो आज़माइश (आफत) की दुश्वारी, बदबखती की पस्ती, बुरे अंत और दुश्मन के (अपने ऊपर) हंसने से।"
"आज़माइश (आफत) की दुश्वारी से " यानी उसकी सख्ती और कठोरता, उसे बर्दाश्त करने की ताकत और उससे बच निकलने और छुटकारा पाने के तरीकों की कमी, उसका सामना करने से तंग दिली, उसमें जो इनाम हैं और उसके बर्दाश्त करने के बाद जो स़वाब है उसे ना समझने से। क्योंकि आज़माइश इम्तिहान है और इम्तिहान अच्छाई और भलाई दोनों से होता है।
इंसान जब "बदबखती (दुर्भाग्य) की पस्ती "से पनाह मांगे तो उसे उन तमाम गुनाहों का भुगतान करने की हमेशा कोशिश करनी चाहिए जो उस बदबखती (दुर्भाग्य) का कारण हैं।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपने सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम को दुआ़ का तरीक़ा और दुआओं के ऐसे शब्द सिखाते थे जिनके द्वारा वह दुआएं करें ताकि उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने का ज़रिया बना सकें। क्योंकि केवल दुआ़ ही मक़सदों को पूरा करने के लिए काफी नहीं है बल्कि हमारे ऊपर वह काम करना भी जरूरी है जिसकी हमें उन्हें प्राप्त करने के लिए जिम्मेदारी दी गई है।
उदाहरण के तौर पर जो रोजी़-रोटी हासिल करना चाहे तो वह उसके हासिल करने के लिए कोशिश करे, भाग-दौड़ करे, और इस मामले में अल्लाह पर भरोसा रखते हुए उसकी तलाश में महनत करे।
बगैर कोशिश के केवल दुआ़ करना तो सुस्ती है अल्लाह पर तवक्कुल (भरोसा) नहीं है। क्योंकि अल्लाह पर तवक्कुल (भरोसा) तो जैसा के उ़लामा इरशाद फरमाते हैं वह यह है कि साधनों (कारणों या ज़रियों) को अपनाते हुए अल्लाह पर भरोसा करे।
अथा: बंदे को पूरी तरह से केवल दुआ़ ही पर भरोसा नहीं कर लेना चाहिए। बल्कि उसे इबादत और अल्लाह से नज़दीक होने का एक जरिया समझे। और अपने अल्लाह की बारगाह में अपनी पूरी मोहताजी बयान करे और अल्लाह तआ़ला की मदद के बगैर अपनी जरूरतों को पूरा न कर पाने की कमजोरी को जाहिर करे।