ह़ज़रत अ़ब्दुल्लह बिन मसऊ़द रद़ियल्लाहु अ़न्हु कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "सच को मज़बूती से पकड़ो। क्योंकि सच नेकी और अच्छाई की तरफ ले जाता है और नेकी जन्नत की तरफ ले जाती है। आदमी सच बोलता रहता है और सच की तलाश में रहता है यहाँ तक की वह अल्लाह के यहाँ बहुत ज्यादा सच्चा लिख दिया जाता है। और हमेशा झूठ से बचो। क्योंकि झूठ फिस्क़ और फ़ुजूर (यानी बुराई और गुनाह) की तरफ ले जाता है फिस्क़ और फ़ुजूर जहन्नम की तरफ ले जाता है। और आदमी झूठ बोलता है और झूठ की तलाश में रहता है यहाँ तक कि वह अल्लाह के यहाँ बहुत ज़्यादा झूठा लिख दिया जाता है।"

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की यह वसीयत तमाम प्रकार की भालाईयों को अपने अन्दर लिए हुए है जिसे मुसलमान अपने दिल से कुबूल करता है और अपने दिमाग, सोच और फिक्र में बिठा लेता है जिससे उसके दिलो-दिमाग और ज़मीर को सुकून मिलता है। क्योंकि सच से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है। सच ईमान की बेहतरीन और बुलंद और अच्छी सूरत है।

जब सच ही ईमान है और इमान ही सच है तो फिर ईमान की हर शाख और विशेषता का शीर्ष, संदर्भ और मुख सच हि होगा।

लिहाज़ा अमानत सच है, वफा सच है, सब्र सच है, शुक्र सच है इनके अलावा भी ईमान की सभी शाखाओं और विशेषताओं का शीर्ष और संदर्भ सच ही है।

इस बयान और स्पष्टता के बाद इस वसीयत की अहमियत और मुसलमानों के दिलों में इसकी महानता और सम्मान का पता चलता है और खास तौर पर जब वे  विद्वान और बुद्धिमान हों।

यह वसियत उन सभी तरबियती तरीकों  को शामिल है जो जिंदा व महान और अच्छे दिलों और ज़मीरों में तमाम इंसानी खूबियों व गुणों और अच्छे और ऊंचे अखलाक के दिये रोशन करते हैं।

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि सल्लम के फरमान "सच को मज़बूती से पकड़ो" बहुत ही शानदार तरीक़े में है जिसे भाषा के माहिर लोग भावनाओं को उभारने और होसले का मज़बूत करने वाला तरीक़ा कहते हैं।  ताकि सुनने वाला उस चीज़ के करने में जल्दी करे और मौके का फायदा उठाते हुए उसकी भलाईयों को हासिल करे।

इस ह़दीस़ पाक का मतलब यह है कि हमेशा सच बोलो, उसे उसकी जगहों में तलाश करो, सच की मोहब्बत को अपनी रग-रग में बसा लो, और अपने अल्लाह के और अपने आप और तमाम लोगों के साथ अपने कामों और सभी हालतों में सच को मज़बूती से पकड़े रहो। और सच बोलने से कभी पीछे मत हटो अगर भले ही तुम्हारे सरों पर तलवारें ही क्यों ना तान ली जाएं। क्योंकि सच में ही बचाव है। सिर्फ सख्त ज़रूरत के समय ही तौरीया (अपने बचाओ के लिए ऐसी बात कहना जिसके दो माना हों और सुनने वाला कुछ और समझे और आपका मकसद दुसरा हो।) का सहारा लो। सच को ही अपना धर्म और मज़हब बना लो। क्योंकि सच में ही तुम्हारे मामले की भलाई है और उसी में तुम्हारे लिए धर्म और दुनिया की बेहतरी है। वह तुम्हारे ईमान के सही होने, तुम्हारे दिलों के सलामत होने और तुम्हारा अल्लाह पर पूरा भरोसा होने की दलील है। अगर मुसलमान हर समय अपने अल्लाह के और अपने आप और लोगों के साथ सच से काम लेता रहे और हमेशा सच के दामन को ही पकड़े रहे तो शायद ही कभी वह जानबूझकर कोई गुनाह करे।

इसमें कोई शक नहीं कि नेकी इंसान को उतना ही जन्नत की तरफ ले जाती है जितना वह उसकी पाबंदी करता है।